बज़िद

Standard

ये माना हम जो कभी रूठे, मनाओगे ना तुम
फिर भी बाज़िद है ये दिल आज रूठ जाने को

कहते रहते है बहुत कुछ तेरे इसरार पे हम
ना कहने का भी कभी लुत्फ़ तो उठाने दो

आज कुछ देर से निकला था मगर चाँद ही था
इस हसीं रात को तन्हा ना गुज़र जाने दो

कभी बैठेंगे सभी शिकवे शिकायत लेके
इस उमर को तो मोहब्बत में संवर जाने दो

एक ज़रा बात पे ख़फ़ा हो, बुरा मान गए
क्या कहें तुमसे मगर, खैर, चलो जाने दो !

संभालने हैं बड़े दर्द अभी राहों में
चंद खुशियों के भी चिराग तो जलाने दो

साथ चलते तेरी खामोशियों के अफ़साने
लम्हा दो लम्हा कदम हमको भी मिलाने दो

तेरे दर पर सुकूं दुनिया जहां का मिलता है
दो घडी आसरे में हमको भी बिताने दो

जहाँ थक जायेंगे, रुक जायेंगे, सो जायेंगे
आँख जब तक ना लगे साथ तो निभाने दो

Leave a comment

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.